दुआ है कि गंगा-जमुनी तहज़ीब को कभी कोई बुरी नज़र न लगे और इसकी खूबसूरती बनी रहे
• ताहिर अली
यदि मंदिरों से घंटियों की मधुर आवाज़ और मस्जिदों से बुलंद अज़ान एक साथ गूंजे, तो समझ लीजिए आप उस शहर में हैं, जहाँ सदियों से गंगा-जमुनी तहज़ीब ने अपने खूबसूरत रंग बिखेरे हैं। यह शहर है भोपाल – झीलों की नगरी, नवाबी संस्कृति की परछाईं, प्राकृतिक सौंदर्य की मिसाल और ऐतिहासिक धरोहरों का सजीव संग्रह।
तहज़ीब और भाईचारा
भोपाल की सबसे बड़ी खासियत इसकी साझा संस्कृति है। यहाँ तालाब के बीचों-बीच मंदिर, मस्जिद और मजारों का साथ-साथ दिखना आम बात है। यही वह शहर है, जहाँ सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक – ताजुल मस्जिद है, तो वहीं विश्व की सबसे छोटी मस्जिद मानी जाने वाली ‘ढाई सीढ़ी मस्जिद’ भी यहीं स्थित है। भोपाल में उर्दू भाषा का उपयोग लगभग सभी समुदाय के लोग करते हैं। भोपाल की सड़कों पर चलते हुए अगर कोई राहगीर किसी मोहल्ले का पता पूछ ले, तो भोपाली उसे दरवाजे तक छोड़कर आते हैं। यही इसकी तहज़ीब है, यही इसकी पहचान है। भोपाल की एक बात ओर मशहूर है कि जो भी भोपाल आता है यहां के लोग उसे सीने से लगा लेते हैं। हिन्दुस्तान के किसी भी कोने से जो भोपाल आया जैसे नौकरीपेशा या कोई भी व्यवसाय के लिए यहीं का होकर रह गया। भेल कारखाना इसका जीता-जागता उदाहरण है। ज्यादातर नौकरी पेशा अधिकारी एवं कर्मचारी रिटायर होने के बाद भोपाल को ही अपना मानकर यहीं बस गए। काफी लोग कारोबार करने के उद्देश्य से यहीं आकर आबाद हो गये।
भोपाल की मज़ेदार ‘उर्फ़ियत’ – नाम के पीछे नाम की दुनिया!
भोपाल, भोपाली और भोपालियत की पहचान केवल ताल-तालैया और ऐतिहासिक इमारतों आबोहवा, तहजीब और संस्क़ति तक सीमित नहीं है, बल्कि अपनी अनोखी और मज़ेदार ‘उर्फ़ियतों’ के लिए भी मशहूर है। जब किसी मोहल्ले में एक ही नाम के कई लोग हों, तो पहचान बनाने के लिए नाम के पीछे कुछ जोड़ना लाज़मी हो जाता है, फिर चाहे वो पहनावे से जुड़ा हो, बोलचाल से, शौक से या किसी मज़ेदार किस्से से – हर भोपाली को मिल जाता है उसका ख़ास "उर्फ़ी टाइटल"।
तो मिलिए भोपाल की इस अनोखी नामावली से –
तारिक़ टाई, जो हमेशा टाई में दिखते थे, तारिक़ चपटे, जिनके गाल खुद गवाही देते हैं, तारिक़ होंठ कटे, जिनके होंठों की कहानी हर गली जानती है, और तारिक़ झबरे, जिनकी आंखें ही उनकी पहचान हैं। आरिफ़ अंडे का नाश्ता शहर भर में मशहूर है, तो आरिफ़ बुलबुल अपने गले से सबको दीवाना बना देते हैं। बाबूलाल 501 नाम की सिगरेट की तरह मशहूर हैं, और सेठ छगनलाल, जिनका "सेठपना" मोहल्ले में आज भी कायम है।
रविंद्र सिंह लखरत, बाबूलाल लठमार, चांदमल हिटलर, मोहन पंचायती, लाला मुल्कराज, सरदारमल लालवानी, नाहर सिंह सूरमा भोपाली, कन्हैयालाल ‘बीड़ी’ और के. अमीनउद्दीन-301 तो अपनी शान और रसूख़ के लिए पहचाने जाते हैं। अखिलेश अग्रवाल गफूरे और वहीद अग्रवाल की उर्फ़ियतें उनकी दोस्ती और कारोबार की दास्तान सुनाती हैं। हफ़ीज़ पाजामे और चांद कटोरे का नाम सुनते ही भोपाल मुस्कुरा उठता है, वहीं चांद चुड़वे मोहल्ले की कहानियों के नायक हैं। सुरेश 501, अनिल अग्रवाल पटीये, और देवेश सिमहल वकील साहब अपने नाम से ही काफ़ी असरदार हैं। बाबू साहब घोड़े और बाबू साहब नाम की सादगी में गजब की शान है। आलू बड़े, ज़ायकों की दुनिया के हीरो हैं, और लोक सिंह ताल ठोंकू हर बहस में जीत की गारंटी हैं। रईस भूरा, मुन्ने मॉडल ग्राउंड, मुन्ने पेंटर, मुईन क़द्दे और माहिर मदीना – ये नाम जैसे ही कान में पड़ें, पूरा मोहल्ला मुस्करा उठता है।
भोपाल की गलियों में लोग नाम से कम और उर्फ़ियत से ज़्यादा जाने जाते हैं। जावेद चपटे और जावेद चिराटे जैसे नामों में मज़ाकिया तंज है, तो बन्ने पहलवान और बन्ने लखेरा में मोहल्ले की दो अलग-अलग शख्सियतें झलकती हैं। कल्लू अट्ठे, बाबू भड़भुजे, मुन्ने फुक्की, ईरानी और डूंड जैसे नाम रोज़मर्रा की आदतों, मज़ाक या पेशे से जुड़े हैं। सईद बुल, छुटकटे, वहीद ढेलकी, आरिफ पिस्स, और अनफिट भोपाल की उस खास तासीर को दर्शाते हैं, जहां हर नाम के पीछे एक किस्सा है — हँसी, अपनापन और तंज से भरा। यही भोपाल की असली पहचान है — उर्फ़ियतों में बसी यारी और यादें।
भोपाल की इन मज़ेदार उर्फ़ियतों में वो अपनापन है, जो किसी GPS में नहीं मिलता – सिर्फ मोहल्लों की यादों और बातों में ही जिंदा रहता है।
भोपाल में हिंदू-मुस्लिम एकता : सांस्कृतिक सह-अस्तित्व की मिसाल
भोपाल की सांस्कृतिक विरासत की सबसे मजबूत कड़ी उसकी हिंदू-मुस्लिम एकता है, जो सिर्फ सामाजिक सौहार्द का प्रतीक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक संघर्षों के बीच पनपी सहिष्णुता और साझेदारी की अनूठी मिसाल है। जब देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति ने सांप्रदायिक तनाव को जन्म दिया, तब भी भोपाल ने अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब को संजोए रखा। हर वर्ग के लोगों ने एक दूसरे से बहुत प्यार मोहब्बत के साथ दिली लगाव रखा। सन 1812 की लड़ाई में हिंदू योद्धाओं जैसे डांगर सिंह, जय सिंह, और अमन सिंह पटेल ने भोपाल की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहां तक कि युद्ध में महिलाओं ने भी सक्रिय भागीदारी की, यह दिखाते हुए कि भाईचारा केवल धार्मिक स्तर पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर भी जीवित था।
भोपाल रियासत के प्रशासन में हर कालखंड में हिंदुओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही। दीवान (प्रधानमंत्री) जैसे उच्च पदों पर लाला घानी राम, लाला फूलानाथ, राजा अवध नारायण जैसे हिंदू अधिकारी रहे। यह समावेशिता केवल औपचारिक नहीं थी — ये अधिकारी नवाबों के विश्वासपात्र भी थे। नवाब क़ुदसिया बेग़म के दरबार में एक हिंदू, एक मुसलमान और एक ईसाई मंत्री नियुक्त थे — यह उस समय की धार्मिक विविधता के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
रियासत के इंजिमाम (शामिल करने) के बाद शरीफ़ शरणार्थियों में (उच्च परिवार के शरणार्थी) सरदार गुरबख्श सिंह भी थे, जिनके बेटे अमरीक सिंह रंजीत होटल चलाते हैं। वे बहू मियाँ के साथ ईद पर नवाब साहब को सलाम करने जाते। एक बार नवाब साहब ने पूछा कि भोपाल कैसा लग रहा है, तो सरदार साहब ने हाथ जोड़कर कहा कि जहाँ गरीब परवर सरकार का साया हो, वहाँ कोई कैसे न खुश हो — यह कहते हुए वे भावुक हो गए।
धार्मिक सहिष्णुता के उदाहरण
नवाबों ने हिंदू नागरिकों और जागीरदारों के अधिकारों को बराबरी से सम्मान दिया। नवाब सुल्तान जहां बेग़म ने रंग पंचमी पर रंग और सावन के झूले जैसे हिंदू पर्वों में भाग लिया, और गरीब हिंदुओं के लिए "सदाव्रत" योजना शुरू की, जिसमें उन्हें भोजन और यात्राओं के लिए सामग्री दी जाती थी। हवा महल की दीवार इसलिए टेढ़ी बनाई गई क्योंकि पास के एक हिंदू नागरिक ने अपनी जमीन बेचने से इनकार किया था — सरकार ने उस निर्णय का सम्मान किया।
भोपाल में न कभी विशुद्ध मुस्लिम मोहल्ले रहे, न विशुद्ध हिंदू — सब एक साथ रहते थे। त्योहार, शादियाँ, दुःख-सुख सब साझे होते थे। इसी समरसता ने उर्दू भाषा के विकास को सहज वातावरण दिया। उर्दू न केवल दरबार की भाषा बनी, बल्कि आम जीवन की भाषा भी, जिसमें दोनों समुदायों ने योगदान दिया। भोपाल का इतिहास केवल एक रियासत की कहानी नहीं, बल्कि यह सांप्रदायिक सौहार्द, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक सहभागिता का जीवंत दस्तावेज़ है। यह आज के भारत के लिए भी एक प्रेरणा है कि विभिन्न धार्मिक समुदाय कैसे सम्मान, सहयोग और साझा विरासत के आधार पर एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं।
दिनों के नाम पर मोहल्लों के नाम
भोपाल की दिलचस्प रचनात्मकता इसके मोहल्लों के नामों में भी झलकती है – मंगलवारा, बुधवारा, इतवारा, जुमेराती, पीरगेट – इन मोहल्लों में किसी एक समुदाय की पहचान नहीं बल्कि पूरे शहर की साझी संस्कृति की झलक मिलती है। यही कारण है कि यहाँ के लोग आपदाओं में एक-दूसरे की मदद के लिए सबसे पहले खड़े नजर आते हैं। शुजा ख़ां का अट्टा भोपाल की उन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध गलियों में से एक है, जिसकी मिट्टी ने कई नामचीन और असरदार शख़्सियतों को जन्म दिया है। यूँ तो रियासत भोपाल में जुमेराती के काका मियाँ, इब्राहीमपुरा के तब्बू मियाँ और शफ़ीक़ पठान, लक्ष्मी टॉकीज़ के रफ़्फ़ू पहलवान, बुधवारा के डॉक्टर ज़हीरुलइस्लाम, इमामी गेट के हकीम अख़्तर आलम और सर्राफा चौक के मुन्नू लाल जोहरी जैसे कई मशहूर लोग गुज़रे हैं, मगर शुजा ख़ां का अट्टा की अपनी एक अलग ही तारीख़ है। यहाँ की सरज़मीन न केवल ज़रख़ेज़ रही है, बल्कि इसने समाज, अदब और कारोबार के कई सितारों को भी रौशन किया है। समय के साथ यह इलाका अब एक बड़ा कारोबारी केंद्र बन चुका है, जिसकी वजह से पुराने बाशिंदों के कई ख़ानदान सुकून की तलाश में शहर के अलग-अलग वीआईपी इलाकों में जाकर बस गए हैं। लेकिन इस मोहल्ले की रौनक कभी ज़हूर हाश्मी, शिक्षाविद डॉ. सैय्यद अशफ़ाक अली, खान शाकिर अली खान, शायर अख़्तर सईद ख़ां, नवाब मियाँ ‘सिगरेट’, मौलाना इमरान ख़ां, अल्लामा खालिद अंसारी, शर्की खालिदी और सालिक भोपाली जैसे रौशन चहरों से जगमगाया करती थी।
भोपाल का गुटका, बटुआ और नवाबी बटुए
एक ज़माना था जब भोपाल के गुटके की खासियत हर जगह मशहूर थी। ये वो गुटका नहीं, जो आज की तरह लोगों की जेब में रहता है, बल्कि ड्रायफ्रूट, रंग-बिरंगे मसालों और इत्र की सुगंध से तैयार होता था, जिसे खूबसूरत बटुओं में सजाकर पेश किया जाता था। भोपाल के ‘बटुए’ नवाबी शान की निशानी थे, और आज भी सर्राफा बाजार की कुछ दुकानों पर यह परंपरा जीवित है।
भाईचारे की कहानियाँ – रिश्तों की गर्मी
भोपाल एक ऐसा शहर है जहां किसी एक विशेष समुदाय के मोहल्ले नहीं बल्कि सारे समुदाय समझदारी, भाईचारा और आपसी प्रेम के साथ एक साथ रहते हैं। किसी आपदा-विपदा में एक-दूसरे की मदद करते नजर आते हैं। मैं खुद भोपाल के इतवारा मोहल्ले का निवासी रहा हूँ। हमारे पुश्तैनी मकान के सामने साहू समाज का परिवार रहता था, जो आज भी हमारे दिल के बेहद करीब है। मेरी बहन ने इस परिवार को राखी बाँधी थी। मेरी बारात में ये परिवार हमारे साथ सीहोर तक गया, और जब 1977 में मेरी माताजी का निधन हुआ, तो पहली रसोई इन्हीं के घर से आई। आज भी हमारे सुख-दुख में वही आत्मीयता बरकरार है।
भोपाल: धर्मनिरपेक्ष पहचान का प्रतीक
भोपाल के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक, काली माता का मंदिर, छोटे तालाब क्षेत्र में स्थित है और एक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल के रूप में जाना जाता है। वहीं एयरपोर्ट क्षेत्र में स्थित मनुआभान की टेकरी पर श्वेतांबर जैन समुदाय का एक प्रसिद्ध मंदिर है। अब इस टेकरी को महावीर गिरी के नाम से भी जाना जाने लगा है, जहां प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। बिड़ला मंदिर भोपाल का श्रद्धा का केंद्र है। चौक स्थित प्राचीन आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, बहुत मशहूर है। इसके साथ ही बिडला मंदिर सहित अनेक मंदिर आस्था के केन्द्र है।
भोपाल में सिख धर्म की उपस्थिति सुदीर्घ और प्रभावशाली रही है, जिसका प्रतीक हैं शहर के तीन प्रमुख ऐतिहासिक गुरुद्वारे – शाजहानाबाद, हमीदिया रोड और इदगाह हिल्स। शाजहानाबाद स्थित गुरुद्वारा नानकसर 19वीं सदी में स्थापित हुआ और आज भी गुरबाणी, संगत और लंगर की परंपराओं को जीवंत रखे हुए है। हमीदिया रोड का गुरुद्वारा गुरु सिंह सभा शहर का प्रमुख धार्मिक व सामाजिक केंद्र है, जहाँ कीर्तन, शिक्षण शिविर और सामूहिक सेवाएं नियमित रूप से होती हैं। वहीं इदगाह हिल्स स्थित गुरुद्वारा गुरु नानक दरबार आध्यात्मिक शांति व प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थल है, जहाँ पर्वों पर श्रद्धालु बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं। ये तीनों गुरुद्वारे न केवल धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, बल्कि सेवा, एकता और सामाजिक उत्तरदायित्व की मिसाल भी पेश करते हैं।
भोपाल की सबसे पुरानी चर्चें शहर के समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक विविधता का प्रमाण हैं। सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी कैथेड्रल चर्च 150 वर्षों से अधिक पुराना है और नवाब सिकंदरजहां बेगम की अनुमति से ब्रिटिश काल में बना। इसकी वास्तुकला और शांति इसे प्रार्थना का प्रिय स्थल बनाते हैं। सेंट जोसेफ कैथोलिक चर्च एक शांत वातावरण वाला यह चर्च, भोपाल की सबसे पुरानी पूजा स्थलों में से है, जो सामुदायिक कार्यक्रमों और त्योहारों में सक्रिय भूमिका निभाता है। इन्फेंट जीसस चर्च की सुंदर वेदी और क्रिसमस के अवसर पर भव्य सजावट इसे विशेष बनाती है। यह धार्मिक और सांस्कृतिक पर्यटन का प्रमुख केंद्र है। इन चर्चों की उपस्थिति भोपाल की सर्वधर्म समभाव की परंपरा को और मज़बूत बनाती है।
नवाबों की विरासत: ताजमहल से लेकर बाबे-ए-आली तक
भोपाल के ताज महल की इमारत, जिसे नवाब हमिदुल्ला खान ने पाकिस्तान से आए सिंधी शरणार्थियों को शरण देने के लिए समर्पित किया था, आज भी सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल है। भोपाल शहर के बीचों-बीच स्थित जामा मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता की परिचायक है। गोलघर, गौहर महल, मिंटो हॉल, सदर मंजिल और बॉबे आली जैसी शानदार इमारतें अपनी खूबसूरती और भाईचारे की गवाह हैं। भोपाल में किसी जमाने में खवातीन (महिलाओं) के लिए घरेलू सामान की जबरदस्त प्रदर्शनी बाबे-ए-आली में लगा करती थीं। जिसमें शहर के बड़े ताजिर (व्यापारी) अपनी दुकानें प्रदर्शनी में लगाया करते थे। प्रदर्शनी में 10 साल से ज्यादा के पुरूषों को आने की अनुमति नहीं थीं। भोपाल के नबाव होली त्योहार के बाद रंगपंचमीं पर शहरवासियों के साथ मिलकर रंग खेलते थे। उस जमाने में शादियां मोहल्ले में शामीयाने लगा कर की जाती थी। भोपाल की पहचान उस दौर में खास सवारी तांगा से हुआ करती थी। शादी समारोह में शामिल होने आए मेहमानों का तांगा सवारी का किराया खुद अदा करते थे।
बरकतउल्ला भोपाली: आज़ादी की अलख जगाने वाला अज़ीम सपूत
भोपाल की सरज़मीं को यह फ़ख्र हासिल है कि यहाँ एक ऐसा जांबाज़ स्वतंत्रता सेनानी पैदा हुआ, जिसने अपनी पूरी जिंदगी भारत की आज़ादी के नाम कर दी। मौलाना मोहम्मद बरकतउल्ला भोपाली — एक ऐसा नाम, जो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ ज्वाला बनकर उभरा। कच्चे मकान में जन्मे इस अज़ीम शख्स ने दुनिया के 26 देशों में 45 सालों तक भटकते हुए स्वतंत्रता की मशाल को जलाए रखा। 1890 में जब वो इंग्लैंड पहुंचे, तो देखा कि एक ही साम्राज्य में एक देश (इंग्लैंड) सम्पन्न और दूसरा (भारत) बदहाल क्यों है? इस अन्याय के खिलाफ उन्होंने कलम और जुबान को हथियार बनाया। पेरिस में ‘अल-इंक़लाब’ के संपादक बने, जापान में ‘इस्लामिक फ्रेटरनिटी’ नामक अखबार शुरू किया, जर्मनी में लाला हरदयाल के साथ ‘ग़दर पार्टी’ की नींव रखी और अमेरिका में जाकर भारतीयों को एकजुट किया।
1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने रूस में क्रांतिकारी लेनिन से मुलाकात की, और गांधीजी के मार्गदर्शन में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के साथ मिलकर अफगानिस्तान में निर्वासित भारत सरकार की स्थापना की। इसमें बरकतउल्ला भोपाली को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। उनके नाम पर भोपाल में आज ‘बरकतउल्ला विश्वविद्यालय’ और ‘बरकतउल्ला भवन’ स्थापित हैं।
शायरों, हाकी खिलाड़ियों और पूर्व राष्ट्रपति की धरती
भोपाल ने देश को न केवल नामचीन शायर और लेखक दिए, बल्कि हॉकी के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। खपोटा लकड़ी से बनी हॉकी स्टिक लेकर इस शहर के खिलाड़ियों ने देश का नाम रोशन किया। यही भोपाल है जिसने डॉ. शंकर दयाल शर्मा को राष्ट्रपति पद तक पहुँचाया – यह हर भोपाली के लिए गर्व की बात है।
भोपाल का जिक्र करेंगे तो ओबेदुल्ला खां हाकी गोल्ड कप का उल्लेख होना भी जरूरी है, नहीं तो यह अधूरा माना जाएगा। ये टूर्नामेंट भोपाल में एक जश्न की तरह मनाया जाता था। भोपाली पूरे साल इस का इन्तेजार करते थे। हिदुस्तान के अलावा इन्टरनेशनल टीमें में भी इस टूर्नामेंट में भाग लेती थी। साइकिलों का दौर था हर साइकल सवार ऐशबाग स्टेडियम की तरफ नजर आता था।
यह जानना भी ज़रूरी है कि रियासत भोपाल की बेगम सुल्तान जहां के बेटे प्रिंस औबेदुल्ला ख़ान के नाम पर इस टूर्नामेंट की शुरुआत 1931-32 में हुई थी। यह भारत में हॉकी का सबसे पुराना हॉकी टूर्नामेंट माना जाता है। उस दौर में अकेले भोपाल में ही 65 हॉकी क्लब थे। वहीं रायसेन जिले का कस्बा ‘औबेदुल्लागंज’ भी प्रिंस औबेदुल्ला के नाम पर ही रखा गया है। एक ज़माने में भोपाल को ‘हॉकी की नर्सरी’ कहा जाता था।
भोपाल-नंबरों का शहर
वक्त के साथ भोपाल शहर बढ़ता गया, नई बसाहटों के नए-नए नाम आये। विस्तारित हुए शहर भोपाल के इलाकों की शिनाख्त नंबरों से भी होती है। सबसे पहले आता है 1250, मतलब जिला अस्पताल जयप्रकाश चिकित्सालय, जिसे ज्यादातर लोग 1250 या जेपी अस्पताल कहते हैं। अस्पताल का नामकरण इस इलाके में बने 1250 सरकारी आवासों से है। आवास और अस्पताल दोनों 1250 के नाम से जाने जाते हैं। करीब ही सेकेंड है, यानी कभी यहां सिटी बस को दो नंबर स्टॉपेज हुआ करता है। हालांकि, इलाके का असली नाम तुलसीनगर है। सेकंड से आगे बढ़े तो मालूम नहीं क्यों तीन व चार ग़ायब हैं और सीधे पांच नंबर इलाका और पांच नंबर मार्केट। असलियत में ये शिवाजी नगर इलाके का हिस्सा है। पांच के बाद छह नंबर भी शिवाजी नगर का ही हिस्सा है। इतना ही नहीं मिनी बस वालों और यात्रियों की सहूलियत के लिये छह नंबर और सात नंबर स्टॉप के बीच सवा छह और साढ़े छह भी हैं। इन इलाकों में रहने वाले खुद के पते के बारे में यही बताते हैं। सात नंबर के बाद आठ नंबर स्टॉप को आठ नंबर कम रविशंकर मार्केट के नाम से ही जाना जाता है। यहां के वाणिज्यिक इलाके को नौ नंबर के नाम से जाना जाता है। आगे 10 और 11 नंबर के बीच साढ़े 10 नंबर भी पता बन चुका है। इसके बाद 11 नंबर और उससे बायीं तरफ 1100 आ गया। यहां भी इलाके की पहचान 1100 सरकारी क्वार्टर्स की वजह से है। वापस बस स्टॉप की रवायत में आएं तो 11 नंबर से आगे बढ़े तो 12 नंबर, और इसी लिये भोपाल के नए शहर के पीडब्ल्युडी दफ्तर के भवन को 12 नंबर दफ्तर के नाम से जाना जाता है। नंबरों वाला होने में शहर के सबसे ज्यादा पॉश इलाके भी पीछे नहीं हैं। चार इमली, 74 बंगले और 45 बंगले हैं। जहां संतरी से मंत्री तक और बाबू से सबसे बड़े बाबू (आईएएस, आईपीएस, आईएफएस अफसर) के साथ ही राज्य शासन के दूसरे अफसर रहते हैं। चार इमली के बारे में शहर के बुज़ुर्ग बताते हैं कि जब भोपाल राजधानी नहीं था तब यहां घना जंगल था और इमली के चार बड़े पेड़ थे। पैंतालीस और चौहत्तर बंगले भी बंगलों की संख्या के कारण बने। अब शहर का प्रसार निरंतर हो रहा है। नित-नए इलाके प्रकट हो रहे हैं। अब भोपाल शहर पूंछ की तरफ बढ़ रहा है। पूंछ में शामिल हो रहे हैं होशंगाबाद रोड एनएच-12 के दोनों तरफ के आर्केड, पैलेस, विला, विहार और पुरम। नई कॉलोनियों की बसाहट भोजपुर की ओर जाने वाले मोड़ तक पहुंच गई है। भोपाल की लंबी होती पूंछ की फिलवक्त लंबाई मील में है, लिहाजा इसे 11 मील कहते हैं।
आधुनिक भोपाल की ओर: स्मार्ट सिटी की उड़ान
वर्तमान में भोपाल एक स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित हो रहा है। ओवरब्रिज, स्मार्ट रोड, मेट्रो रेल जैसे प्रोजेक्ट्स पुराने शहर को नए शहर से जोड़ रहे हैं। एयरपोर्ट अब भी विशेष सेवाओं के लिए कार्यरत है और पुराने दौर की ‘पुतली घर’ नामक कपड़ा मिल की मीनार आज भी इतिहास की गवाही देती है।
दुआओं में बसा है मेरा भोपाल
मेरे अतीत के झरोखे से कुछ यादगार पल जो मैंने आज भी अपनी यादों में संजोकर रखे हैं। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि 71 वर्ष की उम्र में आज भी भोपाल की इस संस्कृति, भाईचारे और शांति से जुड़ा हूँ। यही दुआ करता हूँ कि यह शहर सदा यूं ही फले-फूले, इसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब को कभी कोई बुरी नज़र न लगे और इसकी खूबसूरती बनी रहे।