शादीशुदा ज़िंदगी का सबसे तकलीफदेह और मनहूस वक्त वो होता है जब “तलाक़…तलाक़…तलाक़…” कहकर सबसे ख़ूबसूरत रिश्ते का अंत किया जाता है | क्या मुस्लिम समाज, जो हर वक़्त क़ुरान, इंसानियत, धर्म, मुहब्बत, भाईचारे को तहेदिल से मानता और जानता है, के लिए महिलाओं की कोई इज़्ज़त नहीं होती | आज भी महिलाओं का दर्ज़ा दोयम है | मुस्लिम महिलाओं का जीवन और भविष्य उनकी जुबान से तीन बार निकलने वाले इस कड़वे शब्द पर ही निर्भर है | जब सऊदी अरब और पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों में इस पर पाबंदी लगा दी गई है तो भारत जैसे धर्मनिरपपेक्ष देश में इसे जारी रखने का क्या तुक है?
शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे मे तो इस्लाम का कानून ही यही हैं के ये रिश्ता (यानि निकाह) ज़िन्दगी भर साथ निभाने और एक दूसरे के साथ वफ़ा करने का रिश्ता हैं जिसके लिये अल्लाह खासकर दोनो(यानि शौहर और बीवी) के दिलो मे मुहब्बत और नर्मी का अहसास पैदा कर देता हैं| फिर भी “तलाक़” के ये शब्द इस रिश्ते को सरेआम ख़त्म कर देते है | वक्त बहुत आगे निकल गया है, शायद तभी मुस्लिम समाज अब इस मुद्दे पर बंटता नजर आ रहा है |
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद पूरे देश के साथ पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर इलाके में भी उक्त सवालों पर बहस शुरू हो गई है | ज्यादातर मौलाना, उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन तीन बार बोल कर “तलाक़” देने की प्रथा को जारी रखने के पक्ष में हैं तो महिलाएं और उनके हितों के लिए काम करने वाले संगठन इस प्रथा को पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इसके खात्मे के पक्ष में |
शोध से पता चलता है की मुस्लिम तबके की 92.1 फीसदी महिलाएं तीन बार बोल कर तलाक की इस प्रथा पर पाबंदी के पक्ष में हैं | देश के 10 राज्यों में किए गए इस अध्ययन में शामिल ज्यादातर महिलाएं आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े तबके की थी | अब तो स्पीडपोस्ट, ईमेल, स्काईप, मोबाइल मैसेज और व्हाट्सऐप जैसे सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए भी कोई भी पति तीन बार “तलाक़” लिख कर अपनी पत्नी से नाता तोड़ सकता है | क्या क़ुरान में ये लिखा है की पति पत्नी का सबसे पाक़ और खूबसूरत रिश्ते का अंत सिर्फ “तलाक़” जैसे शब्द से ख़त्म किया जा सकता है | किसी महिला का अस्तित्व बस यही आकर ख़त्म हो जाता है |
न सिर्फ धर्म की बंदिशे बल्कि तमाम राजनीतिक दल अल्पसंख्यकों को लुभाने के नाम पर महज मौलवियों को खुश करने का प्रयास करते हैं | इसकी वजह है कि पूरे समाज की भावी रणनीति मौलवियों के फतवे से ही तय होती है | और यही कारण है की मुस्लिम महिलाओं की हालत अब तक जस कि तस हैं | न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार “तलाक़…तलाक़…तलाक़…” कह कर रिश्ता ख़त्म करना असंवैधानिक है | क़ौम का झंडा लहराने वाले, धर्म के ठेकेदार अपने ही धर्म की महिलाओं की स्थिति को बद् से बद्तर करने के ज़िम्मेदार है |
ख़ुदा कभी भी अपनी औलादों की बर्बादी नहीं चाहेगा | ऐसे में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को सुधारना हम सभी का फ़र्ज़ है, किसी खास धर्म और जाति का नहीं | अगर अब भी क़ौम के नाम पर खिलवाड़ करने वाले नहीं जागते तो न्यायिक प्रक्रिया के ज़रिये तीन बार “तलाक़” कह कर रिश्ता ख़त्म करने के तरीके को ख़त्म कर देना चाहिए, रही बात राजनितिक पार्टियों की तो उनसे उम्मीद करना बेकार है क्योकि धर्म की राजनीती से ही उनकी कुर्सियां टिकी है |
पूर्ति निगम
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